
कर्ज माफी कोई समाधान नहीं
| | 19 April 2017 8:16 AM GMT
नरेन्द्र देवांगनपिछले महीने केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने संसद में यह कह कर कि उत्तर प्रदेश ...
नरेन्द्र देवांगन
पिछले महीने केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने संसद में यह कह कर कि उत्तर प्रदेश के किसानों की कर्ज माफी का भार केंद्र सरकार उठाएगी, एक नए विवाद को जन्म दे दिया था। अन्य राज्यों का तर्क है कि इस मामले में केंद्र सरकार भेदभाव नहीं कर सकती। भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में उत्तर प्रदेश के किसानों के ऋण माफ करने का ऐलान किया था तो इस वायदे को पूरा करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है, केंद्र की नहीं।
कृषि मंत्री के बयान के बाद भाजपा शासित राजस्थान, महाराष्ट्र और हरियाणा में सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी। उत्तराखंड में भी भाजपा और पंजाब में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में कर्ज माफी का वादा किया था। समय-समय पर देश के विभिन्न राज्यों में किसानों के ऋणों को माफ किया जाता रहा है। उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ होने के बाद अन्य राज्यों से भी इस तरह की मांग उठने लगी है। देश के अन्नदाता के लिए कर्ज माफी का शब्द बहुत ही अच्छा लगता है लेकिन सवाल यह है कि सरकार की ओर से की जाने वाली कृषि ऋण माफी का लाभ क्या उन किसानों को मिल पाता है जो इसके वास्तविक हकदार हैं? किसी भी किस्म की कर्ज माफी हो, यह ऐसी दर्द निवारक दवा की तरह है जिसका तात्कालिक लाभ तो मिल जाता है लेकिन यह वास्तविक रोग का निदान नहीं कर पाता। अर्थशास्त्रियों के नजरिए से देखें तो किसी भी किस्म की कर्ज माफी ठीक नहीं कही जा सकती चाहे कर्ज माफी औद्योगिक क्षेत्र के लिए हो या फिर किसानों के लिए हो। यह कर्ज ले कर काम चलाने की संस्कृति के विरूद्ध है। हाल ही रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने भी ऐसा ही कहा है। कर्ज वसूली की समस्या से जूझ रहे बैंक कर्ज माफी प्रस्ताव से सहमे हुए हैं। बैंकों का बैड लोन 16.6 फीसदी की खतरनाक सीमा पर पहुंच चुका है। एसबीआई का साफ कहना है कि इससे कर्ज अनुशासन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा।
देश में हर साल 8 से 10 हजार किसान विभिन्न कारणों से आत्महत्या करते हैं। इनमें बड़ी संख्या कर्ज में डूबे छोटी जोत वाले किसानों की ही होती है। क्या किसानों के लिए कर्ज माफी की योजनाओं का लाभ इन्हें मिल पाता है? सरकार द्वारा देश के किसानों पर 12.6 लाख करोड़ रूपए का कर्ज है। इसमें छोटे और सीमांत किसानों का हिस्सा करीब 50 फीसदी है। सब जानते हैं कि ज्यादातर छोटे किसान बैंक नहीं, साहूकारों से कर्ज लेते हैं, इसलिए सरकारी कर्ज माफी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिल पाता। उत्तर प्रदेश में किसानों के 36 हजार करोड़ के ऋणों को माफ कर दिया गया है। अर्थशास्त्री के मुताबिक यह गलत ही है। सरकार बैंकों द्वारा किसानों को दिए गए ऋण ही माफ कर पाती है। फिर बैंकों को इस धन की भरपाई में काफी समय लगता है। किसान कर्ज माफी का लाभ साहूकारों या अन्य निजी ऋणदाताओं से ऋण लेने वाले किसानों को नहीं मिल पाता। बार-बार की ऋण माफी योजनाओं से जो किसान लाभान्वित हो जाते हैं, वे चुनाव पूर्व प्रतीक्षा में रहते हैं कि कौन सा राजनीतिक दल उनके ऋणों को माफ करने वाला है। इस तरह से ऋण न चुकाने की उनकी आदत बन जाती है। सरकार जब ऋण माफी की योजना लागू करती है तो आमतौर पर छोटी जोत वाले किसानों को ही ध्यान में रखा जाता है लेकिन सरकार की ऋण माफी योजना का लाभ उन्हीं किसानों को मिल पाता है जिन्होंने बैंकों से ऋण लिए होते हैं। अधिकतर ये ऐसे लोग होते हैं जिनका जमीनों पर कब्जा होता है या जिन्होंने ऐसे छोटे व सीमांत किसानों की जमीन को खरीद लिया होता है।
किसान आत्महत्या के आंकड़ों पर नजर डालने से छोटे किसानों के दर्द को बेहतर समझा जा सकता है। देशभर में आत्महत्या करने वाले किसानों में 44.5 प्रतिशत छोटे काश्तकार, 27.9 फीसदी सीमांत, 25.2 फीसदी मझोले किसान और मात्रा 2.3 फीसदी बड़े जमींदार हैं। बैंकों से कर्ज लेने वाली एक दूसरी श्रेणी में बड़े-बड़े उद्योग और कॉर्पोरेट हैं जो बरसों से लिया खरबों रूपए का कर्ज नहीं लौटा रहे।
सवाल उठता है कि कर्ज में डूबे किसानों के लिए क्या कर्ज माफी ही एक मात्र उपाय है? क्या इससे उनकी परेशानी खत्म हो सकती है? यह तो सही है कि औद्योगिक जगत के कर्ज को देखते हुए किसानों के कर्ज नगण्य है। जब उन्हें कर्ज माफी मिल सकती है तो देश का अन्नदाता तो इसका पहला हकदार है, किंतु जब बात आती है लक्षित वर्ग को कर्ज मुक्त कराने की तो कर्ज माफी ही पर्याप्त नहीं लगती। ऋण लेने वाले किसानों में बड़ी संख्या छोटी जोत वाले किसानों की होती है और उन तक लाभ नहीं पहुंच पाता तो लगता है ऐसी कर्ज माफी का क्या फायदा?
कुछ राज्यों में एक अधिनियम के मुताबिक अदालत द्वारा ऋण नहीं चुका पाने वाले किसान को किश्तों में ऋण अदा करने की सुविधा मिलती रही है। एक अन्य कानून के मुताबिक अनुसूचित जाति और जनजाति के किसानों की जमीन की बिक्री नहीं की जा सकती लेकिन हकीकत में होता यह है कि कर्जा लेने वाले ऐसे किसानों की जमीन पर ऋणदाता ही कब्जा कर लेता है और वह फसल का उपयोग भी करता है। किसानों के लिए कम से कम ऐसा नियम आए जो ऋण के बदले अधिक ब्याज दर वसूले जाने पर लगाम लगाए। चक्रवृद्धि ब्याज दर के चक्रव्यूह से अन्नदाता को मुक्ति दिलानी होगी। यदि किसानों को वास्तव में लाभान्वित करना है तो उनकी आय बढ़ाने पर अधिक ध्यान देना होगा। सरकार उनकी उपज पर्याप्त मात्रा में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदे इस बात के इंतजाम करने होंगे। न्यूनतम समर्थन मूल्य की निर्धारित समय पर समीक्षा की जानी चाहिए। केंद्रीय स्तर पर ऐसा कानून बने जिसमें देश के किसानों के हक में सरकार खड़ी हो और निजी ऋणदाताओं से लिया उनका ऋण चुकाए। कानून में व्यवस्था हो कि राज्य सरकार ऋण लेने वाले किसानों का वर्गीकरण करे। बैंकों के साथ-साथ निजी ऋणदाताओं के कर्ज में डूबे किसानों को चिंहित किया जाए। जिन किसानों की जमीनों पर कब्जे हो गए, पहले तो उनकी जमीनें उन्हें वापस दिलाई जाएं और फिर उनके ऋणों को सरकार द्वारा चुकाया जाए।
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