
तो गड़बड़ियां आखिर कहां हैं!
| | 24 April 2017 7:58 AM GMT
संपादकीयझारखंड में आदिवासियों के विकास के लिए ढेर सारी योजनाएं चला रही हैं लेकिन जमीनी हकीहत यह है...
संपादकीय
झारखंड में आदिवासियों के विकास के लिए ढेर सारी योजनाएं चला रही हैं लेकिन जमीनी हकीहत यह है कि गांवों में रहने वाले लोगों के जीवन स्तर में उस अनुपात में सुधार नहीं हो रहा है जिस अनुपात में उनके नाम पर योजनाएं संचालित की जा रही हैं। यह जरूर है कि रघुवर सरकार ने ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों को अपनी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखा है और वह गांवों, खासकर आदिवासियों के कल्याण पर विशेष ध्यान दे रही है। वह यह मान कर चल रही है कि गांवों के विकास में ही झारखंड के विकास का मंत्र छिपा है। तब गड़बड़ी कहां हो रही है। गड़बड़ी तंत्र की कार्य-संस्कृति में आसानी से खोजी जा सकती है। आदिवासी जमात आगे बढ़ना चाहती है लेकिन कदम-कदम पर बेशुमार दुश्वारियां और अवरोध उनका रास्ता रोकते नजर आते हैं। उन्हें शिक्षा, व्यापार और कृषि कार्य के लिए पैसों की जरूरत है और इसके लिए बैंकों से ऋण एक बेहतर विकल्प है लेकिन इस विकल्प के दरवाजें भी उनके लिए अधखुले नजर आ रहे हैं। जो सूचनाएं आ रही हैं उनके अनुसार राज्य में शिक्षा, कृषि और व्यापार से सम्बन्धित आदिवासियों के लगभग तीस हजार आवेदन अधर में लटके हैं। इन्हें निष्पादित करने के लिए बैंक कोई रूचि नहीं दिखला रहे हैं। हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री बैंकों से कई बार कह चुके हैं कि वे आदिवासियों को ऋण सुविधाएं, खासकर शिक्षा और कृषि ऋण उपलब्ध कराने के लिए पूरी तत्परता दिखलाएं पर बैंकों की मानसिकता में कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं हो रही है। चिंता की बात यह है कि शिक्षा ऋण नहीं मिलने या इसमें अनपेक्षित विलम्ब होने के कारण बड़ी संख्या में प्रतिभा सम्पन्न गरीब आदिवासी विद्यार्थियों के समक्ष उच्च शिक्षा प्राप्त करने के मार्ग में अनेकानेक अवरोध उत्पन्न हो रहे हैं। आदिवासियों को ऋण देने के मामले में बैंकों की परेशानी का मुख्य कारण यह है कि राज्य में सीएनटी और एसपीटी एक्ट लागू होने के कारण आदिवासियों की जमीन की नीलामी नहीं हो सकती। ऐसे में जमीन रेहन रखकर ऋण लेने वाले आदिवासी अगर ऋण राशि नहीं चुकाते हैं तो उनकी जमीन नीलाम नहीं की जा सकती। यही वह मसला है जिसके कारण बैंक आदिवासियों को ऋण देने से कतराते हैं। ग्रामीण झारखंड के विकास के रास्तों में इस तरह के ढेर सारे अवरोध हैं। इन्हें व्यवहारिक सोच-समझ के साथ दूर करने की जरूरत है। वर्तमान सरकार इस दिशा में अपनी विभिन्न योजनाओं के साथ जरूर आगे बढ़ रही है लेकिन योजनाओं के क्रियान्वयन के मोर्चे पर उसकी तत्परता पर सवाल भी उठ रहे हैं।