
विकास मॉडल, राज्य और विरोधाभास
| | 24 April 2017 8:00 AM GMT
नरेंद्र देवांगनसंघीय लोकतंत्र में केंंद्र व राज्य सरकारों में करों व अन्य स्रोतों से प्राप्त आय का...
नरेंद्र देवांगन
संघीय लोकतंत्र में केंंद्र व राज्य सरकारों में करों व अन्य स्रोतों से प्राप्त आय का वितरण अहम मुद्दा होता है। भारत में क्षेत्रीय आर्थिक असमानता का मूल कारण आजादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के केंद्र में कृषि को रखना रहा है। इसके बावजूद कृषि पर भी पूरी तरह से फोकस नहीं हो पाया लेकिन देश के जिन राज्यों ने अन्य क्षेत्रों पर ध्यान दिया, वो विकास की दौड़ में आगे निकल गए। हमारे देश में 14वें वित्त आयोग की मुख्य संस्तुतियों की स्वीकृति के बाद यह प्रचारित हुआ था कि राज्य सरकारों के संसाधन अब काफी बढ़ गए हैं। इस आधार पर वर्ष 2015-16 के वित्तीय वर्ष में अनेक जनकल्याणकारी परियोजनाओं व कार्यक्रमों के बजट में केंद्र सरकार ने यह कहकर बड़ी कटौती कर दी थी कि बढ़े हुए संसाधनों से राज्य सरकारें इन कार्यक्रमों के अधिक भार को संभालने में अब सक्षम हो गयी है पर क्या वास्तव में इन संसाधनों में उतनी वृद्धि हो सकी है जितनी उम्मीद थी? क्या यह वृद्धि बढ़ी हुई जिम्मेदारियों को संभालने के लिए पर्याप्त है? राज्य संसाधनों के संसाधन अधिक बढ़े हैं या उत्तरदायित्व? तमिलनाडु ने निर्माण क्षेत्र पर ध्यान दिया तो वहां इससे जुड़े कई प्रकार के उद्योग-धंधे लगे। कर्नाटक ने सेवा क्षेत्र पर विशेष रूप से ध्यान दिया तो बेंगलूरू सेवा क्षेत्रा (सर्विस सेक्टर) का हब बन गया। हरियाणा जैसे राज्य ने निर्माण और कृषि दोनों में गौर किया तो वहां कमोबेश स्थिति स्थिर बनी रही है। कृषि अर्थव्यवस्था से अमीर और गरीब वर्ग ही जुड़े रहे। कृषि क्षेत्र द्वारा 55 फीसदी लोगों को रोजगार देने के बावजूद इसकी जीडीपी में हिस्सेदारी 17 फीसदी ही है। हमारे विकास मॉडल में भी विरोधाभास रहा। अर्थव्यवस्था पहले कृषि और फिर सेवा क्षेत्र में परिवर्तित हो गया। इसमें निर्माण क्षेत्र पर कम फोकस ही रहा। सेवा क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी 65 फीसदी है लेकिन वह मात्र 17 फीसदी लोगों को ही रोजगार दे रहा है। सेस व सरचार्ज से एकत्र होने वाली धनराशि वर्ष 2014-15 में 75533 करोड़ रुपए थी। मौजूदा वर्ष के बजट में इसकी अनुमानित राशि 169662 करोड़ रूपए बतायी गयी है। इसमें बहुत अधिक वृद्धि हुई है। यह तो तेजी से बढ़ती हुई राशि है। यह उस कुल धनराशि में नहीं गिनी जा रही है जिसका केंद्र व राज्य सरकारों में वितरण होता है। इसी कारण कुल संसाधनों में राज्य सरकारों की हिस्सेदारी कुछ कम होती जा रही है।
हमारी अर्थव्यवस्था के तीनों क्षेत्रों कृषि, निर्माण और सेवा में भारी असंतुलन रहा है। सेवा क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति की आय कृषि क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति के मुकाबले 14 गुना ज्यादा है। देश में वर्ष 1991 से 2011 तक सेवा क्षेत्र का जोर रहा और अब निर्माण क्षेत्र पर जोर दिया जा रहा है। निर्माण क्षेत्र का विकास सेवा क्षेत्र की कीमत पर नहीं होना चाहिए। असमानता का एक अन्य कारण ग्रामीण और शहरी क्षेत्र है। गांव में ज्यादातर लोग कृषि पर आधारित है और उसका पलायन शहरों की ओर हो रहा है। केंद्र व राज्य सरकारों को जितने संसाधन ट्रांसफर किए जाते हैं उसे सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखा जाना चाहिए। यह प्रतिशत 2015-16 में वास्तविक ट्रांसफर के आधार पर देखें तो 5.5 प्रतिशत था व 2015-16 में बढ़ कर 6.1 प्रतिशत हो गया। वर्ष 2016-17 के बजट के आंकड़ों के संशोधित अनुमानों के अनुसार यह प्रतिशत 6.6 था। हाल ही में प्रस्तुत किए गए मूल अनुमानों के अनुसार यह प्रतिशत 6.4 तक कम हो गया है। ग्रामीण और शहरी असमानता को दूर करने के लिए लघु उद्योग लगना जरूरी है। मेक इन इंडिया भी इसके बिना सफल नहीं हो सकता है, इसलिए ग्रामीण क्षेत्रा पर फोकस जरूरी है। क्षेत्रा के हिसाब से अनुकूल उद्योग-धंधों को विशेष रूप से बढ़ावा दिया जाना चाहिए। चूंकि राज्य सरकारों के संसाधनों में उम्मीद के अनुकूल वृद्धि नहीं हुई है, अत: इस पर नजर रखना बहुत जरूरी है कि जनकल्याणकारी परियोजनाओं के लिए उपलब्ध कुल संसाधनों में कमी न हो। विशेषकर झारखंड ,बिहार व उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों पर ध्यान देने की जरूरत है।