गुमला, । मां दुर्गा के प्रति श्रद्धा और समर्पण सनातन परंपरा का
अभिन्न हिस्सा रहा है। यह केवल नवरात्रि या उपासना पद्धति तक सीमित नहीं
है, बल्कि भक्ति मार्ग में भक्त और भगवान का संबंध भावनात्मक स्तर पर
स्थापित होता है। सनातन संस्कृति में यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है,
जिसका चरमोत्कर्ष नवरात्रि के दौरान देखने को मिलता है। चैत्र और आश्विन
मास में यह पर्व देवी दुर्गा, देवी लक्ष्मी और देवी सरस्वती के स्वरूपों की
उपस्थिति में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दौरान देवी के विजय
प्रतीक का साक्षात स्वरूप प्रकट होता है, क्योंकि यह महिषासुर पर देवी
दुर्गा की विजय का प्रतीक है।
मान्यताओं के अनुसार, महिषासुर के
अत्याचार से त्रस्त देवताओं की मुक्ति अभियान की पूर्णाहुति के तौर पर इस
पूजा की शुरुआत हुई थी। यह एक ऐसा अभियान था, जिसमें देवी दुर्गा और
महिषासुर के बीच नौ दिनों तक युद्ध चला और दसवें दिन देवी दुर्गा ने
महिषासुर का वध करके विश्व में अमन शांति कायम करने का एक चमत्कार कर
दिखाया।
सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो
श्री दुर्गा के प्रति यह समर्पण न केवल धार्मिक तौर पर अद्वितीय है बल्कि
सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी यह उतना ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि इस
अनुष्ठान में शक्ति, साहस और बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक का जज्बा एक
साथ छिपा हुआ है।
पंडित संतोष बीसी ने सोमवार को बताया कि सनातन
संस्कृति की मानें तो श्री दुर्गा के प्रति यह समर्पण सार्वभौमिक है,
परन्तु झारखंड के इस अंचल में यह संदर्भ अपने आप में अनुठा रहा है। ऐसा
इसलिए कि यदि बारीकी से देखें तो इतिहास से नजरें चुराकर यहां के हर गांव
टोले की पूरबी सीमा में देवी गुड़ी के साक्षात दर्शन होते चले जाएंगे। इसी
तरह आम धारणा के विपरीत आश्चर्यजनक तौर पर यहां महिषासुर के प्रति समर्पण
की बातें भी सार्वजनिक पटल पर देखने को मिल जाएगी। उन्होंने कहा कि
सामान्यत: यह एक अजीब सा प्रसंग हो सकता है परंतु यह सच तो यही है कि कभी
छोटानागपुर की आध्यात्मिक राजधानी के तौर पर प्रतिष्ठित बसिया परगना के
मुख्यालय में प्राक् ऐतिहासिक शिवलिंग के साथ आपको न केवल महिषासुर विग्रह
के दर्शन हो जाएंगे बल्कि इस विग्रह के प्रति अगाध श्रद्धा के भाव भी दिखाई
पड़ेंगे। यह एक बानगी है जबकि आस्था के इस सैलाब में विक्रम संवत 1501 से
अभी तक यहां निर्बाध रूप से जय, विजय, श्री लक्ष्मी, श्री सरस्वती, श्री
कार्तिक, श्री गणेश और महिषासुरमर्दनी सहित तमाम विग्रहों के संपूर्ण
स्वरूपों की पूजा अर्चना होती आ रही है। अभी विक्रम संवत 2082 का कालखंड चल
रहा है। इसी संवत के शुभ मुहूर्त में यहां जीर्ण शीर्ण हो चुके पुराने
मंदिर के स्थान पर अब नया कलेवर डाल दिया गया है। अब संदर्भों की दृष्टि से
देखें तो लगभग पांच सौ अस्सी साल पुराने इतिहास को अपने में समेट कर रखना
कोई छोटी घटना नहीं है। इतना ही नहीं आम धारणा के विपरीत यहां की माटी में
आतंक मर्दिनी दुर्गा के विग्रहों के साथ साथ आतताइयों के प्रतीक महिषासुर
में विद्यमान शक्ति और सद्गुणों के अंतर्गत गुरु तत्व देखने की परंपरा का
भी निर्वाह होता चला आ रहा है।
उल्लेखनीय है कि शारदीय नवरात्र और
चैती दुर्गा पूजा के दौरान बंगाल सहित पूरे संसार में मेढ़ लगाकर
महिषासुरमर्दिनि के लिए अनुष्ठान संपन्न किये जाते हैं। परगना मुख्यालय
बसिया में ऐसा कुछ भी नहीं है क्योंकि यहां सालों भर देवी के सभी विग्रहों
की निरंतर पूजा तो होती ही है, साथ में महिषासुर की भी पूजा होती है। यहां
के मुख्य बाजार के पास "मंडा-महादेव" की चर्चा प्रासांगिक है जिसके प्रांगण
में आप बहुत सहजता के साथ महिषासुर के दर्शन कर सकते है। इस दर्शन के बाद
महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर ब्राह्मण टोला के बीचोंबीच एक प्राचीनतम कलेवर
में आप समस्त विग्रहों सहित देवी श्री दुर्गा के आवाहन का सौभाग्य भी
प्राप्त कर सकते हैं। यहां समान रूप से दोनों की पूजा होती है। इस संबंध
में स्थानीय आस्था की मानें तो यहां महिषासुर और आदि शक्ति दुर्गा के इन
दोनों विग्रहों में एक अलौकिक शक्ति का वास है। अब जज्बा, आस्था और समर्पण
की त्रिवेणी की दृष्टि से देखें तो यह सबकुछ मनोकामना पूर्ति से
साक्षात्कार के साक्षात स्वरूप से कम नहीं है।
गुमला में दुर्गा पूजा की अनूठी परंपरा: शक्ति और आस्था का संगम
