अभी इसे पूरे 24 घण्टे भी नहीं बीते, जब संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि भगवा आतंकवाद जैसा कुछ नहीं होता। जिन्होंने ये झूठा नैरेटिव चलाया है, वह भी जानते हैं कि ये झूठ दूसरे प्रकार के आतंकवाद के सामने खड़ा करने के लिए गढ़ा गया है। आज उस झूठ के सबसे चर्चित मामले में न्यायालय का फैसला आ गया।
महाराष्ट्र का मालेगांव और वर्ष 2008 का बम धमाका, जिसमें छह लोगों की जान चली गई थी और लगभग 100 लोग घायल हुए थे। उस समय अचानक मीडिया में शोर सुनाई दिया, भगवा आतंकवाद, हिन्दू आतंकवाद का। तत्कालीन राजनीतिक बयानबाज़ी और कुछ जांच एजेंसियों की सक्रियता ने जिस दिशा में इस केस को मोड़ा, उसने न सिर्फ एक घटना की जांच को प्रभावित किया, बल्कि पूरे एक धार्मिक समूह हिंदू धर्म को कटघरे में खड़ा कर दिया। इसके जो मुख्य किरदार उभरे, सुशील कुमार शिंदे, पी. चिदंबरम और दिग्विजय सिंह।
एटीएस और एनआईए जैसी एजेंसियों की शुरुआती जांच में कई खामियां उजागर हुईं, तभी यह संदेह गहरा गया था कि उन पर भगवा आतंकवाद सिद्ध करने का गहरा राजनीतिक दबाव था। मालेगांव केस में मोटरसाइकिल का मालिकाना प्रमाण, फॉरेंसिक रिपोर्ट, गवाहों के बयान जैसे साक्ष्य सभी बाद में कोर्ट में ताश के पत्तों की तरह बिखरते नजर आए। जो साक्ष्य कोर्ट के सामने रखे गए, वह सभी एक के बाद एक ढह गए। लेकिन इसके साथ आज कई सवाल खड़े हो गए हैं। क्या उन्हें जो “हिन्दू” शब्द को बदनाम कर रहे थे, उन्हें भी कोई सजा मिलेगी?
घटना का विवरण: 29 सितंबर 2008 – मालेगांव का काला दिन29 सितंबर, 2008 की शाम मालेगांव की भीड़-भाड़ वाली गलियों में एक बम धमाका हुआ। धमाके में 6 लोगों की मृत्यु हुई और प्रारंभिक रिपोर्ट के अनुसार 101 लोग घायल हुए। हालांकि कोर्ट ने कहा कि 95 लोग घायल हुए थे, कुछ मेडिकल दस्तावेजों में हेरफेर के प्रमाण मिले। इस धमाके के बाद जांच की कमान महाराष्ट्र एटीएस के पास गई। उन्होंने कुछ ही समय बाद यह दावा किया कि यह विस्फोट ‘हिंदू चरमपंथियों’ द्वारा किया गया है।
वे जिन पर झूठ का पहाड़ लादा गयाजांच के दौरान जिन नामों को उछाला गया, उनमें कुल सात मुख्य आरोपी थे; साध्वी प्रज्ञा, कर्नल प्रसाद पुरोहित, रमेश उपाध्याय (सेवानिवृत्त मेजर), अजय राहिरकर, सुधाकर धर द्विवेदी, समीर कुलकर्णी, सुधाकर चतुर्वेदी। इन सभी पर यूएपीए (Unlawful Activities Prevention Act) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। साध्वी प्रज्ञा को तो सालों जेल में बिताने पड़े। इन सभी को इतना प्रताड़ित किया गया कि दवाओं के प्रभाव से साध्वी प्रज्ञा सिंह तो कैंसर तक की शिकार हो गईं। लेकिन फिर भी जांच एजेंसियों को कोई ठोस सबूत नहीं मिला जो इन सभी को मालेगांव बम ब्लास्ट से जोड़ पाता।
जांच एजेंसियों की भूमिका: एटीएस, एनआईए और जांच में भ्रमआप सभी जांच एजेंसियों की कार्रवाइयों को देखिए; मालेगांव ब्लास्ट की शुरुआती जांच महाराष्ट्र एटीएस ने की थी। इसके बाद 2011 में यह केस राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपा गया। एनआईए ने 2016 में चार्जशीट दाखिल की, लेकिन वह भी आरोपों को पुख़्ता रूप से नहीं सिद्ध कर सकी। ये सभी जांच संस्थाएं मिलकर भी कोर्ट में नहीं बता सकीं कि आखिर आरडीएक्स आया कहां से था। बम कहां और कैसे बना, इसका कोई वैज्ञानिक या भौतिक प्रमाण नहीं मिला। बम बनाने में किसकी भूमिका थी, यह भी केवल अटकलों पर आधारित था।
कोर्ट का फैसला : केवल धारणा के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकताइस संबंध में विशेष राष्ट्रीय जांच अभिकरण (एनआईए) कोर्ट के न्यायाधीश ए.के. लाहोटी ने 31 जुलाई 2025 को फैसला सुनाते हुए कहा, "अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा है कि धमाका जिस मोटरसाइकिल में हुआ, वह साध्वी प्रज्ञा की थी।
दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवाद से जोड़ने के लिए बार-बार बयान दिए। कई प्रमुख अंग्रेजी और हिंदी चैनलों ने बिना किसी ठोस सबूत के आरोपियों को "भगवा आतंकी" कहना शुरू कर दिया था। टीवी डिबेट्स में रास्वसंघ और उससे वैचारिक रूप से जुड़े संगठनों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन धमाकों से जोड़ने की कोशिश की गई। जिसमें कि कुछ पत्रकारों ने इसे "India's Saffron Terror" जैसा अंतरराष्ट्रीय नैरेटिव बनाने की कोशिश की।
राजनीतिक नैरेटिव: “भगवा आतंकवाद” – एक गढ़ी गई कल्पना
कहना होगा कि 2008-2014 के दौरान कई बार कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने ‘हिंदू आतंकवाद’ या ‘भगवा आतंकवाद’ जैसा शब्द प्रयोग किया। तत्कालीन गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और पी. चिदंबरम तो इसे सार्वजनिक मंचों से बार-बार दोहराया करते थे। इसका असर न सिर्फ अभियुक्तों पर पड़ा, बल्कि पूरे देश में हिन्दुओं के बीच हिन्दुओं को ही संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। देश और दुनिया में हिन्दुओं के प्रति एक अविश्वास का भाव पैदा किया गया।
गृहमंत्री अमित शाह का संसद में बयान : न्यायिक पुष्टि के पहले सत्य का उद्घाटन था
30 जुलाई 2025 को, यानी कोर्ट के फैसले से ठीक 24 घंटे पहले गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में जोरदार भाषण देते हुए कहा, "हिंदू आतंकवाद जैसा कुछ नहीं होता। ये एक राजनीतिक नैरेटिव था जिसे जानबूझकर खड़ा किया गया ताकि दूसरे प्रकार के आतंकवाद से ध्यान हटाया जा सके।" यह बयान देश भर में वायरल हुआ और अगले दिन जब कोर्ट ने सात लोगों को बरी किया, तो अमित शाह का कथन अब तथ्य से पुष्ट हो गया है कि हिन्दू आतंकवाद कभी भी भारत वर्ष या दुनिया के किसी भी कोने में नहीं रहा, न वर्तमान में है।
साध्वी प्रज्ञा; चेहरे पर एक आत्मिक प्रसन्नता के बीच बोलीं- “भगवा को बदनाम किया गया”
न्यायालय से बाहर निकलते ही जब साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर से इस प्रकरण के बारे में जानना चाहा, तब उनकी आंखें नम थीं, वहीं एक संतोष और चेहरे से आत्मिक प्रसन्नता भी झलग रही थी। वास्तव में ये उनके लिए ही नहीं इस केस में आरोपित बनाए गए सभी लोगों के लिए सुख-दुख का मिश्रित पल रहा है, जब उन्हें न्यायालय ने सभी आरोपों से मुक्त किया है ।
पूर्व मेजर रमेश उपाध्याय : “हम निर्दोष थे, हैं और रहेंगे”
सेवानिवृत्त मेजर रमेश उपाध्याय ने कहा है कि “हम पर झूठे आरोप लगाए गए। हम शुरुआत से ही निर्दोष थे। अब सत्य सामने आ गया है।यह देश की न्याय प्रणाली की जीत है और अब समय है कि साजिशकर्ताओं को बेनकाब किया जाए।”
देश के सामने ये बड़ा प्रश्न है, क्या ‘हिंदू आतंकवाद’ शब्द के निर्माणकर्ताओं पर होगी कोई कार्रवाई?
अब अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आरोप सिद्ध नहीं हुए और किसी भी आरोपी का धमाके से सीधा संबंध नहीं था, तो यह सवाल भी उठता है कि क्या झूठी थ्योरी गढ़ने वाले राजनीतिक नेताओं पर कोई जांच या कार्रवाई होगी? क्या एटीएस की शुरुआती जांच में हुई गंभीर लापरवाहियों की भी जवाबदेही तय होगी? क्या मीडिया हाउसेज़ जो 2008 से अब (2025) कोर्ट के निर्णय आने से पहले तक इन लोगों को ‘भगवा आतंकी’ और ‘हिन्दू आतंकी’ कहकर प्रचारित करते रहे, क्या वे अपनी गलती स्वीकार्य करेंगे और सामूहिक माफी मांगेगे?
इतना ही नहीं तो इससे भी आगे भगवा (हिन्दू) आतंकवाद सिद्ध करने के लिए किताबें तक लिखी जाने लगी थीं। जिसमें कि कुछ यहां उदाहरण के रूप में देखें; पूर्व आईजी महाराष्ट्र पुलिस एसएम मुशरिफ की 2009 में पुस्तक आई Who Killed Karkare?। इसमें दावा किया गया कि एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की हत्या एक षड्यंत्र थी; भगवा (हिन्दू) आतंक के खिलाफ उनकी जांच के कारण उन्हें मार दिया गया। सुभाष गताड़े की बुक 2011 में सामने आई Saffron Fascis, जिसमें दावा किया गया कि आरएसएस और उसके सहयोगी संगठन फासीवादी हैं; भगवा आतंकवाद एक उभरता खतरा है।
फिर इसी लेखक ने लिखी Hindutva Terror: RSS and its Terror Trails। वस्तुत: जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि लेखक ने रास्वसंघ को सीधे तौर पर आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश की है। इसके अलावा गताड़े ने Pawns In, Patrons Still Out: Understanding the Phenomenon of Hindutva Terror जैसे अनेक लेख लिखे और यह दावा किया कि भारत में हिन्दुत्व(भगवा) आतंकवाद के रूप में उभर रहा है। फिर 2014 में सामने आई मनोज मित्ता की पुस्तक The Fiction of Fact-Finding: Modi and Godhra। इस पुस्तम में विशेष रूप से गोधरा और गुजरात दंगों की जांच पर प्रश्न खड़े करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से सनातन धर्मी संगठनों पर तमाम कट्टरवाद और आतंकवाद के आरोप लगाए गए ।
इतनेे पर भी जब हिन्दू विरोध पर मन नहीं भरा तो एक पुस्तक लिखी गई, Saffron Republic: Hindu Nationalism and State Power in India, इसमें भी बड़ी बात यह है कि केंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा यह प्रकाशित है और इसे Thomas Blom Hansen & Christophe Jaffrelot ने लिखा वर्ष 2018 में ।
मालेगांव ब्लास्ट के पहले ही हिन्दू (भगवा) को आतंकवादी सिद्ध करने के होने लगे थे प्रयास ऐसा नहीं है कि मालेगांव ब्लास्ट के बाद ही ये सब शुरू होता हुआ दिखता है, इससे कई साल पहले ही संघ एवं राष्ट्रीय चेतना के लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर भारत माता के लिए दिन-रात कार्य करनेवाले संगठनों को अपने निशाने पर ले लिया गया था,
यानी कि 'भगवा' (हिन्दुत्व) को आतंकवादी ठहराने के लिए प्रयास तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वर्षों से चल रहे थे, ताकि उसे इस्लामिक आतंकवाद के समानार्थी खड़ा किया जा सके, लेकिन कहीं किसी को कोई सफलता नहीं मिल रही थी। पर मालेगांव ब्लास्ट के सामने आते ही हिन्दू विरोधियों को अपने लिए एक अवसर दिखा, फिर सत्ता भी उन्हीं की थी, जो लगातार यह सिद्ध करने में लगे हुए थे कि हिन्दू आतंकवाद होता है। तब क्या था, एक के बाद एक किताब लिखी जाने लगीं और शोध के नाम पर झूठा हिन्दू आतंक का नैरेटिव तेजी के साथ गढ़ा जाने लगा।
सत्य की जीत, लेकिन बहुत देर से
इस पूरे प्रकरण ने यह स्पष्ट कर दिया कि न्याय प्रक्रिया भले ही धीमी हो, पर सत्य को छुपाया नहीं जा सकता। 17 वर्षों की लम्बी अदालती प्रक्रिया, मानसिक और सामाजिक प्रताड़ना के बावजूद अंततः आरोपितों को न्याय मिला। लेकिन यह सवाल फिर भी रह जाता है कि इतने वर्षों में जो क्षति हुई, उसका जवाबदेह कौन है? राजनीतिक षड्यंत्र, मीडिया ट्रायल और एजेंसियों के ‘प्री-कन्क्लूडेड नैरेटिव’ ने ना सिर्फ निर्दोषों को अपराधी बना दिया, बल्कि देश के एक प्राचीन धार्मिक समुदाय को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी कटघरे में खड़ा किया।
वस्तुत: ये इस प्रकरण की सीख है कि "हिंदू आतंकवाद" या "भगवा आतंकवाद" का नैरेटिव भारत में एक राजनीतिक, वैचारिक और रणनीतिक उद्देश्य से गढ़ा गया था। किसी केस की जांच में राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। मीडिया को अदालत से पहले फैसला सुनाने का अधिकार नहीं है और सबसे महत्वपूर्ण यह कि प्रत्येक नागरिक निर्दोष तब तक है, जब तक दोष सिद्ध न हो जाए। कुल सार रूप में “हिंदू आतंकवाद” का विचार एक राजनीतिक प्रपंच था, जिसे रणनीति के तहत गढ़ा गया। इसका कोई आधार न था, न है । ये सच आज सभी के सामने आ गया है।
मालेगांव ब्लास्ट : एक सच जो अब आया सामने - मालेगांव ब्लास्ट केस में 17 साल बाद मिला न्याय - डॉ. मयंक चतुर्वेदी

इनमें से दो तो देश के पूर्व गृह मंत्री तक रह चुके हैं। इन्होंने अपने बयानों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से "हिंदू आतंकवाद" शब्द का प्रयोग किया और इसे एक संगठित खतरे के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। लेकिन अब 31 जुलाई 2025 को विशेष राष्ट्रीय जांच अभिकरण (एनआईए) कोर्ट का फैसला आया है। 17 वर्षों की लंबी सुनवाई के बाद तीन जांच एजेंसियों, चार न्यायाधीशों और तीन चार्जशीट्स के पश्चात न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि हिन्दू आतंकवाद एक फेक नैरेटिव गढ़ा गया था। इसमें पकड़े गए सभी सात आरोपितों को ससम्मान दोष मुक्त किया जाता है।
बम निर्माण, योजना और निष्पादन से संबंधित कोई साक्ष्य पेश नहीं किया गया, जो अभियुक्तों को सीधे दोषी ठहरा सके।" कोर्ट ने यह भी कहा कि बाइक का चेसिस नंबर रिकवर नहीं हुआ। फिंगरप्रिंट नहीं मिले। घटनास्थल का पंचनामा ठीक से नहीं किया गया। सबूतों की चेन टूटी हुई पाई गई। जबकि घटना के बाद उस समय सुशील कुमार शिंदे कह रहे थे कि आरएसएस और भाजपा आतंकवाद की ट्रेनिंग दे रही हैं... भगवा आतंकवाद एक सच्चाई है।”
उन्होंने मीडिया से कहा, “मैं एक साध्वी थी, तपस्विनी थी। मुझे षड्यंत्र के तहत फंसाया गया। मेरे जीवन के बहुमूल्य वर्ष जेल में गुजरे। उन्होंने भगवा को बदनाम किया, लेकिन आज भगवा की जीत हुई है, हिंदुत्व की जीत हुई है।” उन्होंने आगे बताया कि कैसे-कैसे उन्हें इस पूरे मामले में जबरदस्त मानसिक, शारीरिक और सामाजिक पीड़ा दी गई।
इसी साल एजी नूरानी की नई पुस्तक प्रकाशित हुई RSS: A Menace to India जिसमें ये रास्वसंघ को बहुत ही तीखे तरीके से घेरने की कोशिश करते हैं। तभी नीलांजन मुखोपाध्याय की किताब बाजार में आती है, The RSS: Icons of the Indian Right। फिर Hindutva Reconsidered (लेख संग्रह) 2020 में सामने आता है, जिसमें अनेक लेखकों के लेख हैं और इस पुस्तक को संपादित ज्यार्तिमय शर्मा ने किया है।
हिंदुत्व की विचारधारा की आलोचना यहां इस तरह से प्रस्तुत की गई है कि वे हिन्दू धर्म को आतंकवाद से जोड़ देते हैं। कहना होगा कि इस तरह से एक हिन्दू विचार या कहें (भगवा) सनातन धर्म के प्रति एक झूठ लगातार गढ़ा जा रहा था कि हिन्दू आतंकवाद भी होता है।
इसलिए ही एजी नूरानी ने The RSS and the BJP: A Division of Labour नाम से पुस्तक सन् 2000 में ही लिख दी थी, जिसमें सिर्फ कयासों के आधार पर यह घोषित करने का प्रयास किया गया कि आरएसएस और भाजपा की आपसी संरचना और रणनीति; दक्षिणपंथी 'हिन्दुत्व' विचारधारा को आतंकवाद से जोड़ती है। इसके बाद India's Silent Revolution: The Rise of the Lower Castes in North India Christophe Jaffrelot 2003 हिंदू समाज के भीतर शक्ति संरचनाएं, लेकिन लेखों में भगवा राजनीति पर भी टिप्पणी कुछ इस तरह से की गई हैं कि उसमें अतिवाद, कट्टरता और आतंक नजर आए।
ऐसे में सवाल अब उन तमाम लोगों से है जो वर्षों से एक झूठ को गढ़ने में लगे थे, अब क्या वे सभी माफी मांगेंगे? क्या उन्हें अपने झूठ गढ़ने के लिए शर्मिदा नहीं होना चाहिए? और क्या उन्हें इसके लिए आज क्षमा याचना नहीं करनी चाहिए कि उन्होंने सालों तक भारत की सनातन हिन्दू संभ्यता और संस्कृति को आतंकवाद से जोड़ने का महा पाप किया है।