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प्लास्टिक के दौर में अस्तित्व की जंग लड़ रहे पारंपरिक काठ के खिलौने



सारण, । विश्व प्रसिद्ध हरिहर क्षेत्र पशु मेले में हस्तकला के एक स्टॉल पर सजे ये रंग-बिरंगे काठ के खिलौने यू ही सबका ध्यान खींच लेते हैं। गुड़िया, लट्टू, ऑटो- रिक्शा, काठ का झुनझुना, लकड़ी के जानवर और पक्षी ये सिर्फ खिलौने नहीं, बल्कि भारत की सदियों पुरानी कारीगरी की कहानी हैं लेकिन इन पारंपरिक खिलौनों की चमक के पीछे छिपा है एक गहरा संघर्ष जो आधुनिकता की दौड़ में अपनी पहचान और अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहा है।



शिक्षाविद् राम दयाल शर्मा ने बताया कि आज के दौर में बच्चों के हाथों में धातु, प्लास्टिक, रबर, इलेक्ट्रॉनिक के आवाज एवं स्क्रीन वाले तथा बैटरी से चलने वाले चमकीले खिलौने हैं, तब काठ के खिलौने अपनी सादगी के कारण पिछड़ रहे हैं। काठ खिलौने जो बच्चों के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विकास के लिए बेहतर माने जाते हैं। लेकिन अब लेकिन अब ऑनलाइन रबर और प्लास्टिक एवं बड़े ब्रांड के खिलौने सामने दम तोड़ते नजर आ रहे हैं।


इस कला को जीवित रखने वाले एक कारीगर राकेश कुमार शर्मा का कहना है कि हमारे मेहनत का सही दाम नहीं मिल पाता है जिससे नई पीढ़ी के युवा लोग इस पुश्तैनी काम से मुंह मोड़ रहे है।


राकेश कुमार शर्मा बताते हैं पहले हर घर में हमारे बनाए खिलौने होते थे। अब लोग एक बार इस्तेमाल कर फेंकने वाले खिलौने खरीदना पसंद करते हैं। हमारे खिलौने टिकाऊ होते हैं और पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित होते थे लेकिन इस बात कौन समझे ?


कला के क्षेत्र में कार्य करने वाली अखिल भारतीय संस्था संस्कार भारती छपरा के संयोजक राजेश चंद्र मिश्रा ने बताया कि काठ कला को बचाने के लिए हमारी संस्था लगातार सकारात्मक प्रयास कर रही है।


उन्होंने ने बताया कि जागरूक माता-पिता अब इन पारंपरिक खिलौनों के शैक्षिक मूल्य को पहचान रहे हैं। सरल, प्राकृतिक सामग्री से बने ये खिलौने बच्चों की कल्पनाशीलता को बढ़ाते हैं, जो इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों में अक्सर सीमित होती है। साथ ही साथ प्लास्टिक और रबड़ के खिलौने में उपयोग होने वाले हानिकारक रासायनिक तत्वों से बचाव कर अपने नौनिहालों के भविष्य को सुरक्षित कर रहे है।


छपरा व्यवहार न्यायालय के अधिवक्ता एवं सामाजिक कार्यकर्ता जितेंद्र कुमार के अनुसार इस प्राचीन कला को विलुप्त होने से बचाने के लिए तीन मोर्चों पर काम करना आवश्यक है, पहला कारीगरों को आधुनिक डिजाइन और मशीनरी का प्रशिक्षण देना, ताकि वे बाजार की माँगों को पूरा कर सकें जबकि दूसरा सरकारी योजनाओं के तहत कारीगरों को आर्थिक सहायता, सस्ते ऋण और मार्केटिंग में मदद मिलनी चाहिए और तीसरा माता-पिता और उपभोक्ताओं को इन खिलौनों के टिकाऊपन, गैर-विषाक्त प्रकृति और बच्चों के विकास में इनकी भूमिका के बारे में जागरूक करना। काठ के खिलौने सिर्फ बच्चों के खेलने की वस्तु नहीं है वे हमारी संस्कृति की एक सुंदर अभिव्यक्ति हैं।


यदि समय रहते इन कारीगरों की कला को सहारा नहीं मिला, तो हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियां इन खूबसूरत खिलौनों को केवल तस्वीरों और संग्रहालयों में ही देख पाएं। जरूरत है कि हम प्लास्टिक को छोड़कर अपनी जड़ों से जुड़े इस मेक इन इंडिया शिल्प को अपनाएं और इसे एक नया जीवन दें।