बड़बोले डोनाल्ड ट्रंप को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाले ट्रंप हाथ मलते रह गए। शांति के नोबेल के लिए चंद देशों से खुद को नामित कराने वाले अड़ीबाज अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रप के मुकाबले बेहद कम चर्चित और दुनिया में अलग पहचान रखने वाली एक महिला को मिलना शायद ट्रंप को उनकी असलियत या औकात बताने को काफी है। वैसे भी हर पुरस्कार के लिए नियम होते हैं, लंबी फेहरिस्त होती है और कारण होते हैं। ट्रंप कहीं से भी इसमें फिट नहीं बैठते थे। लेकिन उन्हें अमेरिका का राष्ट्रपति होने का गुमान था। इसीलिए वो यह जानते हुए भी कि पुरस्कार के लिए नामित होने और औपचारिकताओं के पूरा करने की प्रक्रिया को भी शायद अपनी धौंस से धता बताने की जुगाड़ में थे, जो हो न सका। यह भी सच है कि शायद यह पहला मौका होगा जब पुरस्कार मिलने वाले के नाम की चर्चा के बजाए न मिलने वाले का नाम और उसका रंज सुर्खियों में है।
अब ट्रंप भले ही लगातार अपना दावा जता रहे हों और कहते फिर रहे हों कि कि अमेरिका में जिन भी लोगों को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया, वो ज्यादातर विवादित ही रहे। ट्रंप भला क्या कम विवादित हैं? अमेरिका के राष्ट्रपति बनाम वहां के बड़े बिजनेसमैन डोनाल्ड ट्रंप इस बार सत्ता में आने के साथ ही खुद को शांति का स्वयं-भू मसीहा बताते नहीं अघाते हैं। वो भारत-पाकिस्तान, रूस-यूक्रेन, इजरायल-हमास जंग समेत आठ युद्धविराम या समझौते कराने का दावा करते हैं। जबकि दुनिया हकीकत जानती है कि इन सभी जगहों पर अभी कितनी शांति है?
इस बार का नोबेल शांति पुरस्कार नॉर्वेनियन नोबेल कमेटी ने वेनेजुएला की विपक्षी नेता मारिया कोरिना मचाडो को देना तय किया। नोबेल समिति के अध्यक्ष यॉर्गन वाटने फ्रिडनेस ने मारिया कोरिना मचाडो को एक ऐसी प्रमुख और एकजुट करने वाली शख्सियत बताया जिन्होंने पहले गहरे विभाजित विपक्ष को एकजुट किया फिर स्वतंत्र चुनावों और प्रतिनिधि सरकार की मांग में समान आधार स्थापित करने का कठिन काम किया। अपने प्रयासों की कामियाबी के लिए मारिया कोरिना मचाडो को छिपकर रहने पर भी मजबूर होना पड़ा। लेकिन जान को गंभीर खतरों के बावजूद उन्होंने अपना देश नहीं छोड़ा और दुनिया भर में शांति के पक्षधर लाखों लोगों का प्रेरित किया। मारिया का मानना है कि जब सत्तावादी लोग सत्ता हथिया लेते हैं, तो स्वतंत्रता के ऐसे साहसी रक्षकों को पहचानना जरूरी है जो उठ खड़े हों और विरोध करें। लोकतंत्र उन्हीं लोगों पर निर्भर करता है जो चुप रहने के बजाए गंभीर जोखिमों के बावजूद आगे बढ़ते रहने का दुस्साहस करते हैं। यह याद दिलाता है कि स्वतंत्रता को कभी भी हल्के में नहीं लेना चाहिए, बल्कि हमेशा उसकी रक्षा करनी चाहिए। इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति और शब्दों के सामर्थ्य का इस्तेमाल जरूरी है। ट्रम्प भले ही दुनिया का दारोगा कहलाएं लेकिन उन्हें मारिया के सिध्दांतों और धारणाओं से काफी कुछ सीखने की जरूरत है।
यह सही है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने दूसरे कार्यकाल में तो शुरुआत से ही शांति के नोबेल पुरस्कार का सपना संजोए बैठे थे। उनका हर मंच पर दावा कि उन्होंने ही आठ युद्ध रुकवाए हैं यही बताता है। पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की आलोचना करना और कहना कि बिना किसी कारण के उन्हें नोबेल मिला मैंने तो 8-8 युद्ध रुकवाए अहंकार नहीं तो क्या है? लेकिन वो भूल गए कि उनके दावे नोबेल शांति पुरस्कार के नामांकन की समय-सीमा के बाद के हैं। ऐसे में संभव है कि यह उनकी चालाकी हो और अगले साल के अपने दावे को पुख्ता करने की रणनीति हो! दुनिया जानती है कि ट्रम्प कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। कहा तो यह तक जाने लगा है कि ट्रंप को यह भी नहीं पता अगले पल वो क्या कर बैठें, बहरहाल यह उनका अपना मामला है वो जाने। हां, नोबेल कमेटी की निना ग्रेगर ने यह जरूर कहा कि नोबेल के फैसले पर गाजा सीजफायर का असर नहीं होगा, लेकिन अगर यह शांति स्थायी रही, तो अगले साल ट्रंप की दावेदारी मजबूत हो सकती है। वहीं, नोबेल कमेटी के अध्यक्ष जोएर्गन वाटने फ्राइडनेस ने कहा कि पुरस्कार पर फैसला काम के आधार पर किया जाता है। अब ऐसा भी नहीं है कि अमेरिका जैसे देश सशक्त देश के राष्ट्रपति को इतना भी भान न हो?
अब एक पुराना और चौंकाने वाला वाकया सुर्खियों में है। जब एडॉल्फ हिटलर को शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करने की कोशिश हुई। इससे हर कोई असहज हुआ होगा। उनके क्रूर होने के किस्से-कहानियां इतिहास की किताबों में दर्ज है। क्या उनका नाम कभी प्रस्तावित हुआ? दरअसल एक तीखी व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में जरूर उनका प्रस्ताव स्वीडिश संसद के एक सदस्य, एरिक ब्रांट ने 27 जनवरी 1939 को नोबेल समिति को भेजा। ब्रांट एक समाजिक-लोकतांत्रिक राजनेता थे। यह उनका स्वीडिश राजनीतिज्ञों की प्रवृत्ति पर कटाक्ष और व्यंग था जो तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन की शांति-नीति की तारीफ करते नहीं अघाते थे। जब चेम्बरलेन की शांति के लिए खूब स्तुति हो सकती है, तो हिटलर को भी यूरोप में युद्ध के खतरों लिए नामांकित कर दीजिए। लेकिन सार्वजनिक प्रतिक्रियाओं, आलोचनाओं और गलतफहमियों से घिरता देख ब्रांट ने अपना नामांकन औपचारिक रूप से वापस भी ले लिया।
नोबेल पुरस्कार की स्थापना बिजनेसमैन, एंटरप्रेन्योआर और वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की मृत्यु के बाद हुई जिन्होंने अपनी ज्यादातर संपत्ति कई क्षेत्रों में पुरस्कारों के लिए छोड़ी थी। सन् 1895 में अपनी वसीयत में कहा था कि ऐसे पुरस्कार उन्हें दिया जाना चाहिए जिन्होंने पिछले साल मानव जाति के लिए सबसे बड़ा उपकार किया हो। शुरुआत 1901 में हुई जो जारी है। केवल प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1914 से 1918 तक और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1939 से 1945 में यह नहीं दिए गए।
पुरस्कार भौतिकी, रसायन विज्ञान, चिकित्सा या शरीर क्रिया विज्ञान, साहित्य, शांति और आर्थिक विज्ञान क्षेत्र में दिए जाते हैं। शांति पुरस्कार ऐसा अकेला है जिसका फैसला नॉर्वे की संसद की तरफ से चुने गए पांच सदस्यों की एक समिति की करती है। समिति ओस्लो में है पुरुस्कार वहीं देते हैं। इसमें एक डिप्लोमा, सोने का मेडल और 11 मिलियन स्वीडिश मुद्रा (10.36 करोड़ रुपये) दी जाती है। नियमानुसार पुरस्कार देने और न देने की वजह अगले 50 साल तक नहीं बताई जाती है। काश ट्रंप इतना इंतजार कर पाते? फिलहाल यह देखना होगा कि तिलमिलाए ट्रंप आगे भी शांति दूत बने रहेंगे या दुनिया की शांति हरेंगे, क्योंकि उनकी खीझ, खिसियाहट, टैरिफ वार और बॉडी लैंग्वेज कुछ और ही इशारा कर रही है?
क्या ट्रंप नोबेल में मात के बाद भी शांति दूत बने रहेंगे? ऋतुपर्ण दवे
